Press vs Democracy
It should not be a big debate whether the freedom of democracy is big or the freedom of the press. To understand in simple words, it can be said that if there is democracy then there is the press. And if there is no democracy, then having or not having a press is the same.
Democracy's press is only a system, democracy was neither dependent on it nor will it ever be. At present, if the importance of press is understood in the context of India, then it is working only like a commercial corporate.
We all are aware that from time to time a message keeps coming from the Supreme Court that the press is not performing its duty properly. Such a message coming from the Supreme Court means that the press is taking the wrong advantage of its freedom.
Press is considered to be a pillar of democracy, but now the question is, what is the definition of that press which is considered or considered as the fourth pillar of democracy? There is no defined definition, whereas in fact the press should have a definition.
Is the time now that such press should be removed from the fourth pillar of democracy to keep democracy strong? One who is a broker, one who is for sale, one who misleads, one who incites sentiments, one who describes the movement as undemocratic, one who is biased, one who spreads hysteria, which has fringe elements. Now it seems that the voice of democracy is not to be made in the agenda of the press.
It is true that democracy is paramount, what if democracy itself stands against the press, and voices start rising from house to house that there should not be a press that is not the voice of the public, what will happen?
By
Tanveer Alam
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प्रेस बनाम लोकतंत्र
ये कोई बड़ी बहस नहीं होनी चाहिए कि लोकतंत्र की आज़ादी बड़ी है या प्रेस की आज़ादी l साधारण से शब्दों में समझने के लिये ये कहा जा सकता है कि लोकतंत्र है तो प्रेस है। और अगर लोकतंत्र ही नहीं है तो फिर प्रेस का होना या ना होना बराबर ही है।
लोकतंत्र की प्रेस एक तंत्र मात्र है, इस पर ना तो लोकतंत्र निर्भर था और ना ही कभी होगा। वर्तमान में यदि भारत के परपेक्ष में प्रेस की महत्ता को समझा जाये तो ये मात्र व्यापारिक कॉर्पोरेट की तरह ही काम कर रही है।
हम सब इस बात से अवगत है ही कि समय-समय पर सर्वोच्च न्यायालय की तरफ से ये संदेश आता ही रहता है कि प्रेस अपना दायित्व सही से नहीं निभा रही है। सर्वोच्च न्यायालय की तरफ से इस तरह के संदेश आने का मतलब यही है कि प्रेस अपनी आज़ादी का गलत फायदा उठा रही है।
प्रेस को लोकतंत्र का एक स्तम्भ माना जाता है, पर अब सवाल ये है कि उस प्रेस की परिभाषा क्या है जिस प्रेस को लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ माना जाता है या माना जाये।? कोई परिभाषित परिभाषा नहीं है, जबकि वास्तव में प्रेस की परिभाषा होनी चाहिये।
क्या अब वो वक्त आ गया है कि लोकतंत्र को मजबूत रखने के लिये ऐसी प्रेस को लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ से हटा दिया जाये? जो दलाल है, जो बिकाऊ है, जो गुमराह करती है, जो भावनाओ को भड़काती है, जो आंदोलन को गैर-लोकतान्त्रिक बताती है, जो पक्षपाती है, जो उन्माद फैलाती है, जिसमें फ्रिन्ज एलिमेंट्स हैं। अब ऐसा लगता है कि प्रेस के agenda में लोकतंत्र की आवाज़ बनना है ही नहीं।
ये सत्य है कि लोकतंत्र सर्वोपरि है, क्या हो अगर लोकतंत्र ही प्रेस के खिलाफ खड़ा हो जाये, और घर-घर से ये आवाज़ उठने लगे कि नहीं चाहिये ऐसी प्रेस जो जन-मानस की आवाज़ ना हो तो क्या होगा?
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